व्यंग्य

इंडियन पपेट शो

 

(विधानसभा थियेटर खचाखच भरा हुआ था। महामहिम राज्यपाल, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और मुख्यमंत्री प्रथम पंक्ति में विराजमान थे। यह विधानसभा सत्र नहीं था पर होहल्ला वैसा ही था। संगीत की फुहारें उठीं और दर्शक चुप होने लगे। स्पीकर महोदय ने बाहरी पर्दा खींचा तो हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। पार्श्व पर्दे पर हिंदी में लिखा था - 'इंडियन पपेट शो' उसके नीचे लिखा था लोकतंत्र कला मंडल द्वारा प्रस्तुत।

लोकतंत्र कला मंडल के निदेशक ने माइक सम्हाला। हिंदी में इन्हें कठपुतली मास्टर कहते थे पर अंग्रेज़ी पसंद लोग उन्हें हाईकमान के नाम से जानते थे। उनके पास बत्तीस कठपुतलियों की कमान थी। कठपुतलियाँ नचाने में उनका कोई सानी नहीं था। जैसा कार्यक्रम होता वे वैसे डायलॉग बोलते तथा कठपुतलियाँ नचा देते। वे कठपुतलियों के मालिक नहीं थे, मालिक कभी मंच पर नहीं आते थे, मालिक गल्ले पर बैठते थे, टिकट बेचते थे और लोकतंत्र मैनेज करते थे।)

 

कठपुतली मास्टर - साहबानो, आप सबका स्वागत। लोकसभा, राज्यसभा और कई विधानसभा प्रेक्षागृहों में हमने यह शो मंचित किया है। इसमें नचनिया, मदारी और नागिन डांस, पति-पत्नी की नोकझोंक और बहुत कुछ है। इंडियन पपेट शो का आनंद लीजिए।

 

(नेपथ्य में गाना बजता है.... अरे.... रे रे रे रे रे रे, तीन पहरेदार कठपुतलियाँ नंगी तलवार लिए ऊपर से उतरती हैं और पिछले पर्दे से सट कर खड़ी हो जाती हैं, चौकन्नी निगाहें। एक नचनिया कठपुतली आदाब और नृत्य करते हुए मंच पर उतरती है।)

 

नेपथ्य से - अनारकली सबको नमस्कार करो। ये नमस्कार, ये नमस्कार, ये नमस्कार। जज साहब, मी लॉर्डकठपुतलियों की अग्रिम जमानत मंजूर हो।

 

(दर्शकों की समवेत हँसी, उछल-कूद और विभिन्न मुद्राओं में नमस्ते करतीं अन्य कठपुतलियाँ मंच पर उतरती हैं, नेपथ्य से कठपुतली मास्टर उनका परिचय देते रहते हैं।)

 

पहली - ये घोड़े पर बैठी एमेले कठपुतली देखो। ये आरक्षित एमेले है, कागज़ की लुगदी की बनी है। इसकी पोशाक ग्रामीण है, और नाम है बबली। यह बिना बात के रो सकती है और हर किसी को धो सकती है। इसको अंग्रेजी में सिर्फ बी लिखना आता है पर बहुत आनाकानी और मोलभाव के बाद बी लिखती है। यदि इसको सारे अल्फाबेट्स आते तो छब्बीस राज्य अपने नाम लिखवा लेती।

अब दूसरे एमेले कठपुतले रमेश सिंह से मिलिए, यह बाइक पर सवार है, एंग्री यंग मैन है,प्लास्टिक का बना है, हमारा प्रवक्ता है। जो बोलता है निचोड़ कर बोलता है। इसे सबसे ज़्यादा शालीन गालियाँ आती हैं। यह तीसरा कठपुतला जो कार में सवार है, राजसी है, नाम है राजा। यह मुख्यमंत्री पद का चेहरा है, काठ का बना है। चकाचक कुर्ता-पाजामा-जैकेट पहने है। यह अंदर से घाघ, दबंग और ऊपर से माधो है। चौथा कठपुतला टीवी एंकर है। इसके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे माइक लगे हैं। यह फुसफुसाहट तक को पकड़ सकता है, आप जो बोलें उसका तत्काल अनर्थ कर सकता है। इसके साथ इसका कैमरा मैन है। शेष एमेले कठपुतले-पुतलियाँ हाथ खड़े करने और हाय-हाय चिल्लाने में निपुण हैं, लोकतंत्र में सच्चे जनप्रतिनिधियों का इतना ही रोल है।  

तालियाँ बजाइए साहबानो कलाकारो, अपने रसिकों का झुक कर सम्मान करो। इंडियन पपेट शो शुरू।

(सभी कठपुतलियाँ उछलती-कूदती, नाचने लगती हैं।)

एंकर (राजा से तीखे तेवर में) :  आप विधायकों को कठपुतली बनाते हैं या कठपुतलियों को विधायक।

राजा : एक ही बात है। आप कैसे भी घुमा-फिरा कर पूछो। विधायक, विधायक है।

एंकर : आप प्रश्न को टाल रहे हैं। आप कठपुतलियों को विधायक नहीं बना सकते।

राजा : का टाल रहे जी! इन्हें बंधुआ मजदूर कहो, गुलाम कहो, घरेलू नौकर कहो। प्रेस की जो मर्जी हो कहो। इन्होंने संविधान की सौगंध ले कर विधायक होने की शपथ ली है। इन्होंने इनकी आत्मा हमें दी, हमने इन्हें टिकट दिया। अब हमारी आवाज़ इनकी आत्मा की आवाज़ है। फालतू बात करते हो।

एंकर : कल शक्ति प्रदर्शन में कितनी कठपुतलियाँ आपका साथ देगी?

राजा (ज़ोर देते हुए) : विधायक कहो, कठपुतली नहीं। पपेट शो है तो क्या हुआ, लोकतंत्र की अपनी मर्यादा है।

एंकर : कितना विश्वास है आपको इन पर?

राजा : देखिए, सब विधायक हमारे साथ हैं। ये क्या, इनके बीबी-बच्चे भी हमारे साथ हैं, गुप्त रिज़ॉर्ट में हमारी जीत का जश्न मना रहे हैं। 

एंकर : साफ़-साफ़ कहिए, तो वे बंधक हैं?

राजा : विपक्षी पार्टियाँ विधायकों को बंधक रखती होंगी, ये सब हमारे बड़े परिवार का हिस्सा हैं।

एंकर : कठपुतलियों को टोपी और कपड़े बदलने में क्या वक्त लगता है? कभी भी क्रॉस वोटिंग हो सकती है।

राजा : ऐसा नहीं है, क्रॉस वोटिंग कैसे हो सकती है। इनके हाथ, पैर, उँगलियाँ, कमर, सिर सब डोर से बंधे हैं। हाईकमान जैसी डोर खींचते हैं, ये वैसा एक्शन करते हैं। ये समर्पित विधायक हैं।

बबली (नारा लगाती है) : हमारा सीएम कैसा हो? शेष कठपुतलियाँ समवेत - राजा भैया जैसा हो।

एंकर : ख़ुशी की बात है, ये बोल रहे हैं! ये कैसे बोलते हैं?

राजा : ये बोलते नहीं हैं, होंठ हिलाते हैं। पर्दे के ऊपर से हाईकमान बोलते हैं और इनके होंठों की डोर खींचते हैं। लोगों को दिखता है कठपुतलियाँ बोल रही हैं।

एंकर : आपको नहीं लगता कि लोकतंत्र के प्रतिनिधि आदमी होने चाहिए, कठपुतलियाँ नहीं! भले ही यह शो हो। कठपुतलियों ने राजनीति को व्यवसाय बना दिया है।

राजा : आदमी पलट सकता है, काठ के पुतले नहीं। इनकी निष्ठा बेजोड़ है। हमारे शरीर में हरकत हाईकमान द्वारा डोर खींचने से होती है, अन्यथा हम मुर्दे हैं। हम सेवा की राजनीति करते हैं, विचारधारा की सेवा। हम सब विचारधारा की डोर से जुड़े हैं।

एंकर (हँसते हुए) : कठपुतलियाँ और विचारधारा, हा, हा, हा, हा।

प्रवक्ता : ये विचारधारा ही है जो कठपुतलियों को विधायक बनाती है, योग्य बनाती है, लोकतंत्र का रक्षक बनाती है।

एंकर : कठपुतलियों का खेल तो लोककला मानी जाती है, आप इसे लोकतंत्र कैसे कह सकती हैं?

बबली : हम कह सकते हैं, हम कहेंगे। यह हमारा शो है। लोकतंत्र का पपेट शो है।

एंकर : आप लोगों ने एक जैसी वर्दी क्यों पहन रखी है, वर्दी से जनता डरती है।

प्रवक्ता : वर्दी हमारी एकता की निशानी है। पुलिस क्या डराने के लिए वर्दी पहनती हैं? अब लाल बत्ती तो रही नहीं, दूर से देख कर सबको मालूम हो जाए कि ये सत्तारूढ़ विधायक हैं इसलिए हाईकमान ने ये वर्दियाँ बनवाई हैं।

एंकर : आप हर बात में हाईकमान-हाईकमान करते हैं। आपको तो जनता के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए।

बबली (ठुनक कर) : सबै एमेले हाईकमान के। पैसा हाईकमान खर्चे, भेंट-बँटाई हाईकमान करावे तो दिन में एक सौ आठ बार हाईकमान नाम जीभ पर आवे। हाईकमान साथ ना दे तो एमेले का भया, सड़क-छाप नेता!

एंकर : आपका हाईकमान कौन है, कोई संघ, संगठन, चाचा-भतीजा, भुआ-दीदी, पप्पू, चरवाहा या कोई और? ये लोग इतना पैसा लाते कहाँ से हैं?

राजा : हाईकमान की लीला हाईकमान ही जाने। वे हमें जो जनादेश देते हैं, हम उसका पालन करते हैं। 

बबली : रही पैसे की बात तो, लोग भारी-भरी थैलियाँ ले कर देने के लिए खड़े हैं। जो ख़ुशी से देते हैं हाईकमान रख लेते हैं, जो ख़ुशी से नहीं देते उन्हें हम समझा देते हैं।

एंकर (ज़ोर से) : जनता जानना चाहती है, कौन देते हैं पैसा - उद्योगपति, मल्टी नेशनल कम्पनियाँ, विदेशी पूंजीपति?

राजा : एंकर बाबूजो आपको देते हैं वे हमें भी देते हैं, वे ही विपक्षियों को देते हैं। जितना बड़ा माथा, उतना बड़ा तिलक। राजनीति में सौजन्य से सब खुश रहते हैं, सर्वे भवन्तु सुखिनः। चलो इंटरव्यू ख़तम।

 

(सब कठपुतलियाँ उछलती-कूदती, आदाब और नृत्य करते हुए मंच से ऊपर उठती हैं।)

 

(राजा फुसफुसाते हुए) : एंकर बाबू, अच्छी टीआरपी मिलेगी। इंतज़ाम है, दो पैग लगा कर जाना।

 

(पर्दा गिरता है, दर्शक हाल में खड़े हो कर तालियाँ बजाते हैं, वे और क्या कर सकते हैं!)

परेड का आँखों देखा हाल


राजपथ जैसा राजमार्ग दुनिया में कहीं नहीं है। गणतंत्र दिवस के दिन तो यह मार्ग स्वर्ग की अप्सराओं और इंद्र को भी मात देता है। सारा देश सलामी दे रहा होता है। यहाँ देश की सुंदरता और साहस की झाँकियाँ निकलती हैं जो अभूतपूर्व सुख देती हैं। सड़क के इस ओर हम हैं, उस ओर प्रधानमंत्री तथा विदेशी मेहमान हैं। भारत से विदेश भागने की योजना बना रहे वीवीआयपी भी उधर ही हैं। झाँकी कलाकार जो हमारी तरफ़ हैं हाथ हिला रहे हैं, जो उनकी तरफ़ हैं उन्हें साष्टांग नमन कर रहे हैं। हमारी तरफ़ खड़े प्रेस वाले सरकार का कच्चा चिट्ठा खोल रहे हैं, उन्हें कुछ खोने का डर नहीं है, उन्हें सरकारी विज्ञापन नहीं मिलते। उस ओर खड़ा मीडिया हमारे समय की महानतम सरकार की यशोगाथा बखान रहा है। सड़क के इस ओर प्रजा है, उस ओर तंत्र है। जो सड़क के किसी ओर नहीं हैं और झाँकियों के पीछे भाग रहे हैं, वे अभी भी अपना मूल्य तलाश रहे हैं। उन्हें नहीं पता भागने से मूल्य नहीं मिलता, सरकारी खूंटे से ज़बरदस्ती जा कर बंध जाने से मूल्य मिलता है।   

मैं असंतोषी जीव रह गया हूँ, जितना संतोष मिलता है खा-पी जाता हूँ और फिर सच बोलने लगता हूँ। हरे-भरे लोगों को सब हरा-भरा दिखता है, मेरे पास चश्मा नहीं है इसलिए सब सूखा-सूखा दिखता है। मेरे तरफ़ से राजपथ की झाँकियाँ कैसी दिखाई दे रही हैं, उसका आँखों देखा हाल आपको सुना रहा हूँ।

पहली झाँकी अर्ध नग्न जनजातियों की है। आदिम काल में सारी भूमि इनकी थी, इनके कबीले थे। जैसे-जैसे हम सभ्य होते गए, इनकी भूमि और धन हड़पते गए। हमारी शिक्षा पद्धति हमें शोषक बनना सिखाती रही। हमने इनको बेदख़ल कर दिया और हथियाए माल को अपना बना लिया। आज ये अपनी झाँकी में अपनी परंपरा, नृत्य, संगीत आदि दिखा रहे हैं। आइए हम इनके लिए तालियाँ बजाएँ, हमारे पुरखों ने इनके पुरखों को लूटा और इन्हें हमारे मनोरंजन का साधन बना दिया।

दूसरी झाँकी किसानों की है। एक ट्रॉली पर बंजर भूमि को किसान हल-बक्खर से जोत रहे हैं, इससे जुड़ी ट्रॉली पर फसल लहलहा रही है जिसके चारों ओर सबका साथ, सबका विकास के बोर्ड मुख्यमंत्री के आदमकद फोटो के साथ लगे हैं। किसानों की ऐसी माली हालत देख कर लोग खुश हैं। हम सब जानते हैं, ये भाड़े के किसान हैं, आयोजक इन्हें मुस्कुराने और झंडा फहराने के लिए प्रथम श्रेणी के टीवी कलाकारों को देय फीस अदा कर रहे हैं। पास में खड़ा ख़बरखोजी टीवी वाला गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहा है, देखिए विकास के पट्ट के नीचे लाश पड़ी है, किसी किसान ने फिर आत्महत्या की है।

अगली झाँकी बिहार के लोकनर्तकों की है। गुजराती उन्हें डाँडियों से पीट रहे हैं। पार्श्व में खड़ी ठसाठस भरी ट्रेन काँप रही है गोधरा स्टेशन पर हर ट्रेन थरथराने लगती है। गमछा लटकाए बिहारी लोकनर्तक जान हथेली पर ले कर इधर-उधर भाग रहे हैं, डिब्बे की छत पर चढ़ रहे हैं। उनके हाथ में सामान है, सिर पर सामान लदा है, काँख में बच्चा है। ट्रेन में लटकने की जगह नहीं है। उनके चेहरे से भय टपक रहा है, वे लोग अपने देश लौटना चाहते हैं। हमारी तरफ़ के लोग स्तब्ध हैं, सड़क के उस पार से सीटियाँ बज रही हैं, तालियाँ बज रही हैं, वे इस शानदार नृत्य का मज़ा ले रहे हैं और बिहारी अपने देश खोज रहे हैं।

अगली झाँकी जम्मू-कश्मीर के युवाओं की है। पार्श्व में डल झील है, शिकारे हैं, सुदूर पार्श्व में शालीमार के गुलाबी बाग़ हैं। एक ओर बन्दुकें तानें बख्तर बंद फौज खड़ी है। काली बंदर टोपियों में छुपे कुछ युवक उन पर पत्थर बरसा रहे हैं। फ़ौज पानी के फव्वारे छोड़ रही है पर सड़कों पर ख़ून बह रहा है। लोग कह रहे हैं, अदृश्य पड़ोसी पीठ में छुरा भौंक रहा है।

यह थल सेना की झाँकी है। मुस्तैद युवा सैनिक शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके पीछे तीस साल पुरानी बूढ़ी तोप चल रही है, इसका नाम है बोफोर्स। यह ऐतिहासिक तोप है, इसके बाद सेना ने तोपें लेना ही बंद कर दिया है। दलाली दलाल खाएँ और गालियाँ सेना सुनें! बोफोर्स ने दलाली के मानदंड स्थापित कर दिए हैं, इतना माल हो तो बिचौलिए हाथ डालें।

अगली झाँकी रिज़र्व बैंक की है। बैंक नए-नए नोट छापे जा रही है और अर्थतंत्र की विशाल पाइप लाइन में डाले जा रही है। लोगों ने पाइपलाइन को कई जगह से तोड़ रखा है, वहाँ से ट्रॉलियाँ भर-भर कर वे स्वच्छ धन को अपने कोठारों में जमा कर रहे हैं। पाइपलाइन के अंतिम छोर पर जनता की विशाल लाइन लगी है, वहाँ थोड़ा-थोड़ा धन टपक रहा है।

यह गाँव के जन-स्वास्थ्य विभाग की झाँकी है। पार्श्व में शानदार सरकारी अस्पताल के अहाते में कर्मचारीगण धूप सेंक रहे हैं और गप्पें मार रहे हैं। डॉक्टरों के सरकारी आवासों के सामने मरीज़ों और उनके परिजनों की भीड़ लगी है। डॉक्टर द्रुतगति से घर आए मरीज़ों को निबटा रहे हैं। उनकी डस्टबिन नोटों से भर रही है। लोग कह रहे हैं, डॉक्टर साहब, आपका दिमाग़ घर पर ही रखा है, फीस ले लो पर घर पर ही देख लो। वे उन्हें अस्पताल जाने ही नहीं दे रहे।

अगली झाँकी भी गाँव से है। गाँव के स्कूल का दृश्य है, यहाँ सरकार दोपहर का भोजन देती है। दस-पंद्रह लड़के आये हैं पर उपस्थिति पत्रक पर पूरे दौ सौ लड़के भोजन खाते हैं। जनतंत्र का प्राथमिक वोट बैंक इसी कमाई से बनता है। बच्चे बिना परीक्षा दिए साल-दर-साल पास हो जाते हैं। बुनियादी शाला से निकल कर कस्बे की स्कूल में पढ़ने ये ही दस-पंद्रह लड़के जाते हैं। शेष बच्चे देश की दौलत बन जाते हैं। वित्त मंत्री इन्हें एनपीए कहते हैं, नॉन प्रॉडक्टिव असेट। काग़ज़ों पर साक्षरता उम्दा है, पर ग्रामीण बैंकों में बड़ी आबादी अँगूठे लगा रही है।

यह झाँकी बीएसएफ की महिला सैनिकों की है। यह भवानी टीम मोटर साइकलों पर हैरत अंगेज़ करतब दिखा रही है। दर्शक दंग है, अब सारा देश मीटू से बाहर निकल आया है। राजनेता माँग कर रहे हैं कि ऐसी सशक्त बॉर्डर सिक्युरिटी फोर्स को दिल्ली में तैनात कर देना चाहिए ताकि यहाँ आम लोग सुरक्षित महसूस करें। झाँकियाँ और भी हैं, सलामी लेने वाले थकने लगे हैं, वे खड़े-खड़े सो नहीं सकते, उनके लिए आराम कुर्सियाँ लगाई जा रही हैं। मेरी तरफ़ अचार-पराठों की जानलेवा गंध फैल रही है। भूख लगी हो तो झाँकियों का संदेश किसको समझना है। बाकी झाँकियों को भूख खा गयी है। जय हिंद।  

      भीड़ और भेड़िये


भेड़ें आदमी नहीं बन सकतीं। इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी भेड़ नहीं बन सकता। आदमी भेड़ क्या भेड़िया बन सकता है और चमचमाता बिस्कुट दिखा दो तो मेमना भी बन सकता है। कोई आदमी भेड़िया बन जाए तो वह अपनी जमात में ‘सुपरलेटिव’ हो जाता है। वह कृपानिधान बन कर अपने आगे-पीछे घूम रहे लोगों को भेड़ बना लेता है। लोगों को डरा कर रखो तो वे जल्दी भेड़ बनते हैं। जितना ज्यादा डर, उतनी निष्ठावान भेड़ें। भेड़ों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता की डर आभासी है या ‘रियल’। डराने के लिए डर का भ्रम भी पर्याप्त है। वास्तविक डर की बजाय आभासी डर फैलाना और बनाए रखना सहज है। यह आदमी को भीड़ में बदलने का कामयाब फार्मूला है। भेड़ें और ऐसे पशु भीड़ बन जाएँ तो उन्हें हाँकना आसान हो जाता है। एक भेड़ को डंडा दिखाकर चरवाहा सारी भेड़ों को एक साथ हाँक सकता है। पेशेवर चरवाहे जानते हैं कि भेड़ें न सिर उठा कर देखती हैं, न रास्ते से इधर-उधर होती हैं। एक के पीछे एक। चरवाहा भेड़ों का इसलिए कायल है कि विचारधारा के प्रति निष्ठा और मास्टर के प्रति ऐसा समर्पण और कहीं नहीं मिलता। तटस्थ आदमी के लिए तब भेड़ सिर्फ भेड़ नहीं रहती, अनुकरणीय संस्कृति बन जाती है।

भेड़ बनाने के मामले में राजनेता बेचारे ज्यादा ही बदनाम हैं। वे केवल राजनीतिक रुझान वाले समर्पित लोगों को कुत्ता बनाने की कवायद कर रहे होते हैं। ऐसे में आम जनता कुत्तों के ठाठ देखती है और लिप्सा में टपकती कुत्तों की लार भी। कुत्ते इसे अवसर में बदल लेते हैं। डराने, धमकाने, पुचकारने और आका के रौब तले दबा देने का डर वे जनता के मन में बसा देते हैं। देखते-देखते लोग भीड़ बन जाते हैं। राजनीति के अलावा भी भीड़ तो बनती है। मसलन,  नागा बाबा कौतुहल भरी भारी भीड़ जुटा लेते हैं। उससे बड़ी भीड़ संतनुमा यूनिफॉर्म पहनकर धार्मिक उपदेशक जमा लेते हैं। बड़े आभामंडल वाले सिनेस्टार या खिलाड़ी भी प्रशंसकों की भीड़ जुटा लेते हैं। ऐसी भीड़ बस दर्शन करने और फोटो खिंचवाने के लिए आती है, वहाँ क्या निष्ठा और क्या स्थायीत्व। भीड़ को उपयोगी बनाने का उपाय भेड़िए जानते हैं। भीड़ के आदमी को जब उसमें बसी भेड़ की आत्मा संचालित करती है तब मानवीय आत्मा कहीं कैद हो जाती है। ऐसे में भीड़ नियंत्रक जादूभरी आवाजें निकाल सकता है और भीड़ को जीत सकता है।

सत्तारूढ़ राजनेता या मोक्ष बुकिंग एजेंट जिस तरह भीड़ का भावुक हृदय जीतते हैं वह सबके बस की बात नहीं है। वे भीड़ में घुसी भेड़ों में यह आत्मविश्वास जमा देते हैं कि वे अपनी आत्मा की आवाज सुन कर वहाँ हैं। जो प्रायोजित भीड़ दैनिक भत्ते पर आती है वह पेशेवर भेड़ों से बनी होती है। ये भेड़ें तय अवधि के लिए आँखें बंद कर अपनी आत्मा किराए पर उठा देती हैं। दाम दो और आत्मा ले लो। आदमी से बनी भेड़ का चरित्र आदमी जैसा ही रहता है, संदिग्ध। आदमी पशु बन कर भी पशु जैसा वफादार नहीं बन सकता। इसलिए बड़े राजनेता कुत्ते पालते हैं। वे मानते हैं कि कुत्ते भेड़ों के समूह की उचित निगरानी करते हैं ताकि भेड़ें मालिक की बनी रहें। कुत्ता उन पर भौंकता है, गुर्राता है और भेड़ों को संत प्रवृत्ति की बनाए रखता है। उन्हें बहुत ही कष्ट हुआ तो वे आम जनता की तरह मिमिया देती हैं। मालिक को भेड़ों का एकाकीपन नहीं भाता। एक-दो भेड़ें मिलकर भाड़ नहीं फोड़ सकतीं। बदलाव के लिए मालिक को बहुत सारी भेड़ें चाहिए। इसलिए मालिक के एजेंट जोर से भौंकते हैं और डर के मारे भेड़ें एक-दूसरे में घुसकर संगठन बन जाती हैं। मालिक यही चाहते हैं, कुत्ते यही चाहते हैं, प्रतिरोध रहित संगठन। जनतंत्र को भेड़तंत्र बनाने का फार्मूला शासकों ने यहीं से सीखा है। कुत्ते यदि नहीं भौंके तो भेड़ें मटरगश्ती में बिखर सकती हैं। भले ही वे सीध में चल रही हों, संगठन की विचारधारा बनाए रखती हों, पर अनुशासनहीनता संगठन की ताकत को कमजोर करती है। इसलिए समय-समय पर संगठकों को बेवजह गुर्राना पड़ता है। भय है तो भेड़ें शाश्वत हैं, भय बिन होय न प्रीति।

कई चीजें हैं जो भेड़ और भेड़िया बन कर हासिल की जा सकती है, आदमी रह कर नहीं। फिर भी मुझे इस बात पर आपत्ति है कि आदमी को भेड़ बनाया जाता है। दुख होता है कि इन भेड़ों की निगरानी कुत्ते करते हैं। मैंने मालिक को कहा, इन भेड़ों की निगरानी आदमी को करने दो तो वे बौखला गए। कहने लगे यदि भेड़ों की निगरानी आदमी करेंगे तो ये गडरिए अपनी भेड़ों का अलग समूह बना सकते हैं। ऐसे गडरिए मानते हैं कि इस धरती पर उनका जन्म नया इतिहास लिखने के लिए हुआ है। वे वक्त आने पर अपने मालिक की जमीन खोद सकते हैं। पंद्रह-बीस विधायकों का ग्रुप इधर से उधर होता है तो बेचारे पुराने मालिक को मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ता। यदि ये विधायक कुत्ते की चौकीदारी में रखे गए होते तो किसकी मजाल मालिक की खुशी कोई छीन पाता। कुत्ते के खूँखार दाँत और लपलपाती जीभ देखकर कोई विधायक षडयंत्रकारी हो ही नहीं सकता। कोई इधर-उधर जाने की कोशिश करता तो बिना सीबीआई के हस्तक्षेप के अकेला कुत्ता ही विधायकों को दौड़ा-दौड़ा कर अधमरा कर देता। कुत्ते डॉन भाई जैसे होते हैं। वे कहने लगे जनतंत्र में भेड़िए पालना सभ्य लोकतंत्रीय परंपरा नहीं है, पर भेड़िए जैसे दिखने वाले कुत्ते पालने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। इसलिए निजी तौर पर मालिक लोग यह व्यवस्था कर लें। सरकारी तौर पर पुलिस है ही।

भीड़ देखकर पुलिस का मनोबल जागृत हो जाता है। शासकों के गडरिए भीड़ हाँक रहे हों तो पुलिस को नसबंदी-चरित्र में रहना होता है। जब वे विरोधी गडरियों को टोला ले जाते हुए देखते हैं तो उनका दिमाग सक्रिय हो जाता है। उन्हें दंड विधान की सारी धाराएँ यकायक याद आ जाती हैं। उनके डंडे में संविधान की आत्मा प्रवेश कर जाती है और उनके असले में दमदार गोलियाँ। वे हवाईफायर कर इशारा कर देते हैं। तब समझदार भेड़ें भीड़ के भीतर से भीतर घुसती चली जाती हैं। वे अपने से कमजोर भेड़ों को कवच बनाकर छुप जाती हैं। कमजोरों व अपेशेवरों की टाँगें टूटती हैं, उनके सिर फटते हैं। पुलिस संरक्षण में एंबुलेंस उन्हें लादती है। भीतरतम घुसी पेशेवर राजकीय भेड़ें फोटो-सिद्ध होने पर गिरफ्तारी दे देती हैं। मैं आदमी से ज्यादा भेड़ों के बारे में जानता हूँ और दावे से कह सकता हूँ कि भेड़ों से वफादारी की शत-प्रतिशत उम्मीद की जा सकती है। मैंने आवारा और दलबदलू कुत्ते देखे, पर कभी आवारा या दलबदलू भेड़ें सड़क या विधानसभा के आसपास नहीं देखीं।

    व्यंग्यकारी के दाँव-पेंच

एक जमाना था जीतू जी पहलवानी के उस्ताद थे। जिसको उठाते थे, उसे पटक देते थे और चित्त कर देते थे। उस पर घुड़सवार जैसे चढ़ बैठते थे और रेफरी उनका हाथ पकड़कर ऊँचा उठाने को तैयार होता था तभी उठते थे। अब पहलवानी में कोई स्कोप नहीं था। उनसे ज्यादा सम्मान नुक्कड़ के व्यंग्यकार को मिल रहा था। सो वे व्यंग्य लिखने लग गए। एकदम धाँसू, खानदानी और भोपाली टाइप। आज उनका पुराना शागिर्द बच्चू पहलवान उनसे मिलने आ गया। पैर छुए और बोला- बड़े उस्ताद जी, छोटे उस्ताद जी कह रहे थे कि आजकल आप नई तरीके की वर्जिश करते हो। हाथ-पाँव की बजाय शब्द चलाते हो और मुहावरे मारते हो। लंगोट वाले फोटू में तो आपको बहुत बार देखा, पर आज सुबह अखबार में आपका बाबूजी जैसा फोटो देखा। घरवाले कहने लगे, जा जीतू उस्ताद से नए दाँव सीख कर आ। उस्ताद जी आपके व्यंग्य के अखाड़े में मुझे भी भर्ती कर लो।

जीतू जी बड़े पहलवान थे। दूर-दराज तक उनके पठ्ठे थे, अमेरिका से कैनेडा तक। इसलिए उनके हर जगह चर्चे भी थे। बच्चू को पास बिठाकर बोले- सुन, ताने मारने में दम कम, दिमाग ज्यादा लगता है। पहलवानी सीख गया तो व्यंग्य क्या चीज है। तेरी भुजाओं में बल है। लगा रहा तो सीख जाएगा। भाग गया तो चूक जाएगा।

- जी उस्ताद। पाय लागू।

- व्यंग्य में सबसे बड़ी बात है पंच मारना। ऐसे पंच जो संपादक को समझ में आएँ।

- उस्ताद, मैं कमाल के पेंच मारता हूँ, छक्के छुड़ा देता हूँ।

- बेटे पेंच नहीं, पंच। पेंच को व्यंग्य में पंच कहते हैं।

- उस्ताद मारना है न, पंच ऐसे मारूँगा कि तड़का दूँगा। सांडीतोड़ लगाऊँगा तो संपादक का हाथ तोड़ दूँगा। बगलडूब लगा कर उसको उठाकर पटक दूँगा और फिर धोबीपाट जमा कर धो दूँगा।

- नालायक, तू भी प्रसिद्ध व्यंग्यकारों जैसा निकला जो समझते हैं कि संपादक का बाजा बजा देंगे तो वे डर कर छाप देंगे। सुन, जब तक व्यंग्य के अखाड़े का रुस्तमे हिंद नहीं बन जाए तब तक पंच व्यंग्य में ही लगाना, दूसरी जगह नहीं। संपादक को दोस्त नहीं बनाएगा तो फेमस कैसे होगा? बाद की बात बाद में।

- बराबर उस्ताद। बाद के दाँव लगाना आपने अच्छे-से सिखाए हैं। उन्हें दोस्त बना कर मैं निकालदाँव आजमाऊँगा। चरण स्पर्श करने के बहाने टाँगों में घुसकर उन्हें कंधों पर बिठा लूँगा। जब तक छापेंगे, कंधों पर सारे अखाड़े में घुमाऊँगा, जिस दिन ना-नुकुर करेंगे, धूल में दचक दूँगा।

- बेवकूफ, सारा दमखम शब्दों पर लगाना। दाँव संपादक पर नहीं, व्यंग्य में ही लगाने पड़ते हैं।

- मगर उस्ताद जी, छोटू पहलवान बता रहे थे कि आप संपादकों पर बड़े-बड़े दाँव खेलते हो!

- अरे छोटिया मस्करी करता है। व्यंग्य लिखने में तगड़े शरीर से सब कुछ नहीं होता। शब्दों को पकड़ने की फुर्ती चाहिए। उनसे चालबाजियाँ बनानी और उनकी रंगबाजी बतानी आनी चाहिए। फिर धीरज से सुरसुरी छोड़नी आनी चाहिए।

- उस्ताद जी यह कही पते की बात। मैं जाँघियापकड़ दाँव में पक्का हूँ। पकड़ लेता हूँ तो छोड़ता नहीं।

- हरामी, व्यंग्यकार बनना हो तो अपनी भाषा सुधार। यह सभ्य समाज है। यहाँ शब्द पकड़ते हैं, जाँघिया नहीं। जैसे मिट्टी को नरम बनाने के लिए तेल, छाछ आदि मिलाते हैं, वैसे ही व्यंग्य में करुणा मिलानी पड़ती है। व्यायामशाला में कसरत की बजाय व्हाट्सऐप के व्यंग्य ग्रुपों में दिमागी कसरत कर सकते हो। यहीं ठेके की कुश्तियों जैसी मिलीभगत देख सकते हो। इधर लाठी और तलवारबाजी की जगह साहित्यिक आलोचना करने का हुनर आना चाहिए।

- सर जी, कान पकड़ता हूँ। अपनी पहलवानी में कलाजंग दाँव है, एकदम साहित्यिक। शब्द को पेट के बल उठाओ और पीठ के बल पटक दो।

- हाँ चेले जी। अब तूने सही शब्दावली पकड़ी, खोटा सिक्का ऐसे ही चल निकलता है। सुन, तुझे दूसरे अखाड़े के विरोधी व्यंग्यकार मिलेंगे। गोष्ठियों में जाना पड़ेगा, ये दंगल जैसी होंगी। सम्मेलनों में सुनना-सुनाना पड़ेगा। दूसरे व्यंग्यकार शरीर से पतले-दुबले दिखते हैं पर दिमाग से भारी होते हैं। ये पहलवान से नहीं व्याकरण से पहलवानी करते हैं। उनसे ध्यान से बात करना।

- बेफिक्र रहो उस्ताद जी। टंगीदाँव लगाऊँगा तो विरोधियों की गर्दन अपनी टाँगों में दबोच लूँगा। गोष्ठियों में टक्करपछाड़ खेलूँगा और झटके की टक्कर दूँगा। सम्मेलनों में शेरपछाड़ लगाऊँगा तो सब वाह-वाह करने लगेंगे।

- बेटे, मैं बहुत खुश हुआ। चल तेरा नाम इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकारों में दो सौ बावनवें नंबर पर लिखवा देता हूँ।


 जुगनू, तोते और गणतंत्र

 

रात घिर रही थी। पिछवाड़े से ढक्कन खोलने की मद्दम ध्वनि ठहाकों के साथ मुझ तक पहुँच रही थी। मैं झीने पर्दे से उस पार झाँकने लगा। सज्जन पुरुष जाँच करेगा तो कुछ निराला ही देखेगा। मैंने देखा कि मालिक जुगनू पकड़ रहे थे। जुगनू जनता जैसे मरियल थे पर चमकदार थे। वे कुछ क्षण जगमगाते और मालिक के समीप मंडराने लगते। मालिक उन्हें काँच की खाली बोतल में उतार देते ताकि जुगनू बोतल में बचे स्वाद को चख सकें और उस मादक गंध में मदहोश हो सकें। जुगनू बोतल में चमकते रहते और मालिक के आसपास रंग-बिरंगी दुनिया का भ्रम जीवंत बनाए रखते। वैसे तो शुरू-शुरू में ये जुगनू मालिक की गोद में बैठते-उछलकूद करते थे, पर मालिक का प्यार पा कर धीरे-धीरे हथेली पर आ बैठते थे। यहीं से उनकी बोतल यात्रा शुरू होती थी। सवेरे मालिक की उतर जाती तो वे जनतंत्र की खाली बोतल को उलट-पुलट कर देखते और पैंदे में बेदम पड़े जुगनूओं को देख कर अफसोस मनाते। वे अपनी बोतलों का अमृत महोत्सव मना रहे थे तो मैं भी पहुँच गया।

मैंने मालिक से पूछा -आप जुगनू क्यों पकड़ते हैं?

- ये हवा में तैरते हैं। इनके तैरने से हमें आपत्ति नहीं है, पर ये अंधेरे में लावारिस चमकते हैं। अरे, चमकना है तो हमारा अँगना है। हमारी अपारदर्शी विचारधारा की पारदर्शी बोतले हैं। हमारी चखो, और अपनी रौशनी की निष्ठा हमें दे दो।

- पर सवेरे तक तो ये मर जाते हैं।

- नहीं, सब नहीं मरते। कई जुगनू तोते बन जाते हैं।

- आप जुगनू को ... तोता बना देते हैं। मैंने विस्मय से पूछा।

- अरे आप हकलाते क्यों हैं, हम आपको अभी तोते दिखाते हैं। उन्होंने जोर से आवाज लगाई, ऐ घमंडवा, दो ठो तोते ला।

दो चमकीले पिंजरे आ गए। मैं देखता रहा, पिंजरे में दाने थे, पानी था, झूले थे जिस पर तोते मस्ती में बैठे थे। गर्वोन्नत तोते अपने ठाठ देख रहे थे, पिंजरों की सलाखें उन्हें चिंतित नहीं कर रही थीं। तोतों का गुण है मिट्ठू-मिट्ठू सुनना और मालिक जो कहे दोहराना। मालिक ने तोतों से कहा – मिट्ठू बेटे बोल, असली आजादी।

- असली आजादी, असली आजादी, असली आजादी।

पूरे आँगन में असली आजादी का ऐसा स्वर गूँजा कि घर में बंद सारे तोते एक स्वर में असली आजादी चिल्लाने लगे। मोहल्ले से नगर में गूँजा असली आजादी का शोर सारे देश में गुंजायमान हो गया। तोतों के बोलने से असली आजादी आ रही थी।

मालिक नए और मौलिक संवाद लिख रहे थे कि हमें असली आजादी नया पिंजरापोल बनाने के बाद मिली। मालिक के लिखे संवाद बोलते-बोलते तोते यकायक चिंतक होने का ढोंग करने लगे। तोते गांधी को कायर कह कर नया इतिहास लिखने को आतुर थे। भ्रम फैलाने के लिए भीख में पद्मश्री पा कर वे जय-जयकार कर रहे थे, पैरोडी गा रहे थे, दे दी हमें आजादी ले कर कटोरा-थाल, एक साबरमती के संत ने किया देश बेहाल। मैंने मालिक से पूछा – आपके लिए आजादी का क्या मतलब है? वे चौड़े हो कर बोले – हमें तो केवल अपनी पॉवर के हिसाब से जैसा चाहें उल्टा-सीधा कहने और करने की आज़ादी मिली है। पर, आम जनता को कितनी सारी आजादी मिली है। खामोश रहने के लिए सम्मान निधि पाने की आजादी, गुपचुप कृपा से बैंको से कर्जा ले कर ऋण माफी पाने की आजादी, श्रम और परिश्रम के बदले बेरोजगार रह कर भत्ता पाने की आजादी, विधर्मी मिल जाए तो उसे जिंदा जला देने की आजादी, अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए भारत को बंद करने की आजादी।

मालिक ने गणतंत्र की बोतल उंडेली और मरे हुए जुगनूओं को कचरे के ढेर में डाल दिया, ताकि शाम की महफिल में जो जुगनू तोते नहीं बन पाएँ वे बोतल में डाले जा सकें। मैं गणतंत्र पर चिंतन करने लगा, किंतु गण पर अटक गया। भाषा शास्त्री होता तो कहता गण का मतलब है गिरोह, जैसे डाकूगण, अधिकारीगण, नेतागण। जब गण गिरोह बने तब तोता बनाने के गुण आते हैं। बस ये जो नागरिक हैं, जो गण बनकर ताकत बन सकते हैं, वे जनसंख्या के आँकड़ों से ज्यादा नहीं बनते। उनके लिए गणतंत्र एक छुट्टी भर है और आजादी मुफ्त में बिजली, पानी, मुआवजा या भत्ता पाने की योजना।