समकालीन प्रश्नों, दुरभिसंधियों एवं दुष्चक्रों का आईना
धर्मपाल प्रजातंत्र को एक बस की तरह देखते हैं। 'प्रजातंत्र की बस' में वे लिखते हैं, "प्रजातंत्र की बस तैयार खड़ी है। सरकारी गाड़ी है इसलिए 'धक्का परेड' है। धक्का लगाने में लोग जोर-शोर से जुटे हैं। एकबार गाड़ी रोल हो जाए तो ड्राइवर फर्स्ट गियर में उठाकर स्टार्ट कर ले। पर बस है कि टस-से-मस नहीं हो रही।" (पृ.18) इस रचना में लेखक ने प्रजातंत्र रूपी बस को चलानेवाले लोगों की अयोग्यता, मंशा एवं प्रजातंत्र के अंतर्विरोधों को उजागर किया है। चाहे बस का ड्राइवर हो, चाहे कंडक्टर या बस को धकेलने वाले धकियारे (मंत्री, अधिकारी आदि)। सब पैसेंजर (जनता) को मदारियों की भाषा में गुमराह करते आ रहे हैं। बस को चलाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ड्राइवर की होती है, लेकिन जब ड्राइवर ही गुमराह हो, तो प्रजातंत्र का क्या हाल होगा? इसपर लेखक कटाक्ष करते हुए कहते हैं, "बस का ड्राइवर गुमराह हो जाए, तो प्रजातंत्र गुमराह हो सकता है।" (पृ.18)
सामान्यतः व्यंग्यकार व्यवस्था की खामियों के उद्घाटन में; तात्कालिक घटनाओं को व्यंग्य का विषय बनाने में; प्याज, दाल, नींबू की कीमत बढ़ने पर उन्हें ट्रोल करने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। परंतु हर वर्ष पराली, पटाखों आदि के कारण दिल्ली में होनेवाले प्रदूषण; अमेरिका, चीन, आदि की दुर्नीतियों के उद्घाटन से बचना चाहते हैं। धर्मपाल में यह साहस है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में उन्होंने कई निबंधों में ऐसी विसंगतियों एवं विडंबनाओं पर प्रहार भी किया है।
वे अंतर्वस्तु, शिल्प एवं भाषा में संतुलन बनाने में सफल हुए हैं। इस संग्रह के व्यंग्य समकालीन प्रश्नों से जुड़े हुए हैं। इनमें लेखक ने हर उन दुरभिसंधियों एवं दुष्चक्रों का उद्घाटन किया है, जो आम जन के विरुद्ध है। उनकी यह पुस्तक व्यंग्य-लेखन के प्रति उनकी निष्ठा को तो प्रमाणित करती ही है, यह आश्वस्त भी करती है कि जिन पाठकों तक यह पहुँचेगी, उनकी स्वीकृति भी मिलेगी।
समावर्तन, जून 2022