विचार ही व्यंग्य को व्यंग्य बनाता है।
धर्मपाल गंभीरता से परसाई की वैचारिकी से ही यह संग्रह न केवल शुरू करते हैं वरन अपनी हर रचना में उस विचार पर खरा उतरने के कठिन कौल को पूरा करने की कोशिश करते हैं। विचार के स्तर पर वे बहुत स्पष्ट हैं कि वे रचना में क्या कह रहे हैं, कहां खड़े हैं और पाठक को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। वे लक्षणा, व्यंजना और अभिधा से परे व्यंग्य की उस गुप्त ऊष्मा को तलाशने के कायल हैं जो व्यंग्य को व्यंग्य बनाती है। वे यह ऊष्मा विचार, संवाद, और शब्द को नया अर्थ देने की ताकत में देखते, पाते और वापरते हैं। वे समकालीन व्यंग्य की चुनी उस समझदार चुप्पी के विरुद्ध हैं जो सत्ता के खेल के विरुद्ध कुछ भी बोलने से बचती है। (भूमिका से)
डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
ज्ञानपीठ (प्रथम संस्करण 2022), वाणी प्रकाशन (द्वितीय संस्करण 2022), VANI PRAKASHAN, 4695/21-A, Daryaganj, Ansari Road, New Delhi 110002, t: 112 3273167, vaniprakashan@gmail.com
प्रमुख समीक्षाओं से
सलीके से व्यक्त प्रतिरोध साहित्य में व्यंग्य की संज्ञा पाता है
- राहुल देव
अमूमन प्रवासी लेखक भाषायी तौर पर उतने सशक्त नही दिखते। सुविधासम्पन्न जीवनशैली अक्सर उनकी भाषा को कृत्रिम बना देती है। धर्मपाल जैन की रचनाशीलता मेरी इस धारणा को खंडित करती है। उनकी भाषा मे वैसा बनावटीपन नज़र नही आता। वे अत्यंत सहजता और आत्मीयता से पाठक के निकट जाते हैं। परसाई के प्रति उनका प्रेम हद दर्जे तक है। जिसका प्रभाव उनके व्यंग्य लेखन पर स्पष्ट देखा जा सकता है। उनका लेखक जब देखता है कि आज समूची की समूची हिंदी पट्टी जातियों में बंट गई है और देश के कई हिस्सों में धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश हो रही। वह व्यंग्य के माध्यम से व्यवस्थागत खामियों में सुधार की अपेक्षा करता है। धर्मपाल के व्यंग्यकार की नजर उन कोनों अंतरों में भी जाती है जिसकी प्रायः अनदेखी कर दी जाती है। हाशिए के समाज के उत्थान की भावना उनके व्यंग्य को उद्देश्यपूर्ण बनाती है- 'भेड़ें भीड़ बन जाएं तो उन्हें हाँकना आसान हो जाता है।' (भीड़ और भेड़िये) ...
... मौजूदा हालातों पर लेखक के भीतर गहरा आक्रोश भी है लेकिन वह बगैर बिखरे संयत स्वरों में अपनी बात रखता है। जिनके जरिये वह छल, फरेब और आडंबर के सारे बाजारू प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करता चलता है। इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं का फलक व्यापक है। सलीके से व्यक्त प्रतिरोध साहित्य में व्यंग्य की संज्ञा पाता है। धर्मपाल इसी व्यंग्य की ग्लोबल स्वीकृति के बेहतरीन उदाहरण हैं। सत्य से साक्षात्कार कराते वक्त बीचबीच में वे पाठक को सोचने का भी स्पेस देते रहते हैं। भेड़, भीड़ और भेड़ियों के प्रतीकों के जरिये वे देश मे जनतंत्र की साख बचाये जाने की ओर बार-बार संकेत करते हैं। संग्रह की अधिकांश व्यंग्य रचनाएं विमर्श का ऐसा आईना भी बनाती चलती हैं जिनमे हम अक्सर अपना चेहरा देख नही पाते। धर्मपाल की एक बड़ी खासियत यह है कि उनके सरोकार बड़े हैं। उनमे अदम्य व्यंग्य प्रतिभा है। वे शब्दों की चाशनी नही लपेटते बल्कि मुखर होकर साफ-साफ अपना एजेंडा पाठक के समक्ष रखते हैं। समकालीन हिंदी व्यंग्य के पन्ने पर धर्मपाल महेंद्र जैन ने अपना नाम सुरक्षित कर लिया है।
गर्भनाल, नवम्बर 2022
मानव चेतना को झकझोरता व्यंग्य संकलन- भीड़ और भेड़िए
- सोनिया वर्मा
इसमें कुल 52 छोटे-छोटे व्यंग्य विभिन्न विषयों पर हैं। इसमें न केवल बेहतरीन व्यंग्य रचनाएँ हैं, कई व्यंग्य अर्थों में बहुत अलग और लीक से हटकर हैं जो इसे हिंदी के समकालीन व्यंग्य में महत्वपूर्ण बनाते हैं। व्यंग्य संग्रह का पहला व्यंग्य है 'भीड़ और भेड़िए'। नाम से यह व्यंग्य अज़ीब लग रहा है पर जब इसे पढ़ेंगे तो आप जैन जी की व्यंग्य शैली के कायल हुए बिना नही रह पाएंगे।
52 में से कोई भी व्यंग्य आप पढ़ लें वह पाठक मन पर अपनी छाप छोड़ता है। पाठक को सोचने पर हर एक व्यंग्य विवश करता है।
भीड़ और भेड़िए व्यंग्य संग्रह के अधिकतम व्यंग्य छोटे हैं और अपनी पूर्ण मारक क्षमता के साथ, प्रभावी और मन मस्तिष्क को झकझोरने वाले हैं। देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर वाली प्रवृत्ति के। व्यंग्यकार ने अपनी बातें पौराणिक पात्रों की मदद से कही है तो कहीं भेड़, भेड़िए आदि प्रतीकों के माध्यम से तो कहीं भौतिकी के नियमों के माध्यम से अपनी बात रखी है।
धर्मपाल जी को मालूम है कि उन्हें बात को कहाँ से शुरु करना है और उनका उद्देश्य क्या है। व्यंग्य को किन-किन रास्तों पर चलाते हुए मुकाम तक ले जाना है। यह एक पारखी और वैचारिक लेखक ही कर सकता है। शैलीगत प्रयोग भी इनके व्यंग्यों में खूब हैं। ...यह व्यंग्य संकलन, अन्य संकलनों से अलग है। अगर आप समकालीन व्यंग्य-बाजी से ऊब चुके हैं, निराश हो चुके हैं तो आपको इसे पढ़कर राहत मिलेगी ऐसा मेरा मानना है।"
परिवर्तन, सितम्बर 2022
झकझोरता और आत्म साक्षात्कार कराता व्यंग्य संग्रह
- डॉ. प्रदीप उपाध्याय
सोशल मीडिया के इस चमत्कारिक युग में पहचान का उतना बड़ा संकट नहीं है जितना एक गहरी सोच और चिंतनपरक व्यंग्यकार को जानना और समझना। इस लिहाज़ से यहां मैं निश्चित रूप से वरिष्ठ व्यंग्यकार धर्मपाल का नाम रखना चाहूंगा। वे अपनी व्यंग्य रचना में किसी विसंगति, विद्रूपता या विरोधाभास पर तंज करने में कहीं सायास हास्य उत्पन्न नहीं करते वरन् उनकी व्यंग्य रचनाओं में गंभीर चिंतन-मनन के साथ गहरे कटाक्ष का साक्षात्कार होता है।
धर्मपाल ने अपनी दृष्टि सम्पन्नता, संवेदनशीलता और गहरी सोच के साथ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों और कुरूपताओं पर अपनी धारदार कलम चलाते हुए दिशा दर्शन किया है। व्यंग्य के शीर्षक अपनी बात कहने की क्षमता रखते हैं तो निश्चित ही वे पाठकों को पढ़ने के लिए बाध्य भी करेंगे। धर्मपाल जैन के व्यंग्य आलेख शैली और शिल्प दोनों ही दृष्टि से उल्लेखनीय हैं जिनमें विषय वैविध्य है। समाज में व्याप्त विषमताओं, विद्रूपताओं और विकृतियों को खोजकर अपनी व्यंजना शक्ति के माध्यम से आक्रोश को उन्होंने बेहतरीन अभिव्यक्ति दी है। उनकी अपनी कहन शैली है जिसके माध्यम से वे कई स्थानों पर व्यंजना के माध्यम से अपनी बात कहते हैं तो कहीं-कहीं वे अपनी बात सीधी-सपाट कहने में भी संकोच नहीं करते।
शिवना साहित्यिकी, जुलाई-सितम्बर 2022
समकालीन प्रश्नों, दुरभिसंधियों एवं दुष्चक्रों का आईना
- डा. पंकज साहा
धर्मपाल प्रजातंत्र को एक बस की तरह देखते हैं। 'प्रजातंत्र की बस' में वे लिखते हैं, "प्रजातंत्र की बस तैयार खड़ी है। सरकारी गाड़ी है इसलिए 'धक्का परेड' है। धक्का लगाने में लोग जोर-शोर से जुटे हैं। एकबार गाड़ी रोल हो जाए तो ड्राइवर फर्स्ट गियर में उठाकर स्टार्ट कर ले। पर बस है कि टस-से-मस नहीं हो रही।" (पृ.18) इस रचना में लेखक ने प्रजातंत्र रूपी बस को चलानेवाले लोगों की अयोग्यता, मंशा एवं प्रजातंत्र के अंतर्विरोधों को उजागर किया है। चाहे बस का ड्राइवर हो, चाहे कंडक्टर या बस को धकेलने वाले धकियारे (मंत्री, अधिकारी आदि)। सब पैसेंजर (जनता) को मदारियों की भाषा में गुमराह करते आ रहे हैं। बस को चलाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ड्राइवर की होती है, लेकिन जब ड्राइवर ही गुमराह हो, तो प्रजातंत्र का क्या हाल होगा? इसपर लेखक कटाक्ष करते हुए कहते हैं, "बस का ड्राइवर गुमराह हो जाए, तो प्रजातंत्र गुमराह हो सकता है।" (पृ.18)
सामान्यतः व्यंग्यकार व्यवस्था की खामियों के उद्घाटन में; तात्कालिक घटनाओं को व्यंग्य का विषय बनाने में; प्याज, दाल, नींबू की कीमत बढ़ने पर उन्हें ट्रोल करने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। परंतु हर वर्ष पराली, पटाखों आदि के कारण दिल्ली में होनेवाले प्रदूषण; अमेरिका, चीन, आदि की दुर्नीतियों के उद्घाटन से बचना चाहते हैं। धर्मपाल में यह साहस है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में उन्होंने कई निबंधों में ऐसी विसंगतियों एवं विडंबनाओं पर प्रहार भी किया है।
वे अंतर्वस्तु, शिल्प एवं भाषा में संतुलन बनाने में सफल हुए हैं। इस संग्रह के व्यंग्य समकालीन प्रश्नों से जुड़े हुए हैं। इनमें लेखक ने हर उन दुरभिसंधियों एवं दुष्चक्रों का उद्घाटन किया है, जो आम जन के विरुद्ध है। उनकी यह पुस्तक व्यंग्य-लेखन के प्रति उनकी निष्ठा को तो प्रमाणित करती ही है, यह आश्वस्त भी करती है कि जिन पाठकों तक यह पहुँचेगी, उनकी स्वीकृति भी मिलेगी।
समावर्तन, जून 2022