विचार ही व्यंग्य को व्यंग्य बनाता है।

धर्मपाल गंभीरता से परसाई की वैचारिकी से ही यह संग्रह न केवल शुरू करते हैं वरन अपनी हर रचना में उस विचार पर खरा उतरने के कठिन कौल को पूरा करने की कोशिश करते हैं। विचार के स्तर पर वे बहुत स्पष्ट हैं कि वे रचना में क्या कह रहे हैं, कहां खड़े हैं और पाठक को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। वे लक्षणा, व्यंजना और अभिधा से परे व्यंग्य की उस गुप्त ऊष्मा को तलाशने के कायल हैं जो व्यंग्य को व्यंग्य बनाती है। वे यह ऊष्मा विचार, संवाद, और शब्द को नया अर्थ देने की ताकत में देखते, पाते और वापरते हैं। वे समकालीन व्यंग्य की चुनी उस समझदार चुप्पी के विरुद्ध हैं जो सत्ता के खेल के विरुद्ध कुछ भी बोलने से बचती है।  (भूमिका से)

डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी