Dimag Walo Sawdhan दिमाग वालो सावधान

     किताबगंज प्रकाशन

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आदमी मज़बूत मगर मजबूर प्राणी है। कई नमूने हैं उसके। कुछ दिमाग़ वाले, कुछ बिना दिमाग़ के, कुछ पौन दिमाग़ के कुछ पाव दिमाग़ के। बिना दिमाग़ के लोग शुद्ध आदमी होते हैं, वे दूसरों का दिमाग़ खाते हैं और धीरे-धीरे खाली कर देते हैं। फिर वे नया दिमाग़ पकड़ते हैं, दीमक जैसे चिपकते हैं और उसको भी खाली कर देते हैं। यह क्रिया आदमी को जानवर से भिन्न बनाती है। आप आदमी बनने की प्रक्रिया देखिए, बच्चा पैदा हुआ, उसका दिमाग़ माँ-बाप ने खाया, रिश्तेदारों को खिलाया, स्कूल मास्टरों ने दावतें उड़ाईं, खुड़चन बची, वह कॉलेज में साफ़ हो गई। दिमाग़ की हंडी एकदम क्लीन, बजा के देखी, बजी। तब विश्वविद्यालयों ने डिग्री दे दी, गुरुओं ने कहा वत्स, तुम पूर्ण आदमी हुए, अब दिमाग़ कबाड़ो और खाओ।


आप जानते ही हैं, मूलतः दिमाग़ गोबरनुमा 'सेमी लिक्विड' होता है। न ठोस, न द्रव, अति स्वादिष्ट, रबड़ी जैसा, चाटो तो चटखारे लेते रहो। शुरू में दिमाग़ चाटना रासायनिक क्रिया होती है। कोई चाटक दिमाग़ चाटना शुरू करता है तो वह उसे खाली कर के ही साँस लेता है। दिमाग़ी तरल पदार्थ के लुप्त हो जाने से दिमाग़ खाली और बट्ठर हो जाता है। इसमें दिमाग़ का मूल स्वरूप ही बदल जाता है, रासायनिक क्रिया पूर्ण हो जाती है।

चाटक फिर भी आते रहते हैं पर अब भौतिक क्रिया ही हो सकती है। दिमाग़ खाली है, वह न गर्म होता है न ठंडा, निर्विकार रहता है। जितना चाटना है चाटो, शौक से चाटो। अभी-अभी जो दिमाग़ बट्ठर बना था, वह प्रतिक्रियावादी बन जाता है। दूसरों का दिमाग़ कबाड़ता है और चाट-चाट कर उसे महान बना देता है। अब आप समझ जाएँगे कि भारत जगत गुरू क्यों है। यहाँ गुरू ही गुरू रहते हैं, पूरे सवा सौ करोड़ गुरू। 

दस-बीस हज़ार लोगों की भाड़े की भीड़ में, दस-बीस दिमाग़ होते हैं, शेष सादी वर्दी में पुलिस विभाग होता है। श्रोता जानते हैं कि उनका दिमाग़ ठोस है, क्या बिगड़ता है। वे तो देश के लिए जान दे सकते हैं, दिमाग़ क्या चीज़ है। राजनेता रूपी थोक चाटक अनुभवी है, उसका उद्देश्य होता है पब्लिक का दिमाग़ और सरकार का ख़जाना चाटना। वह इस प्रत्याशा में चटखारे लेता है, ठिठोली करता है, पब्लिक तालियाँ ठोकती है, वोट देने की रस्म निभाती है और जनतंत्र को जिंदा रखती है। अख़बार विज्ञापन के अनुपात में चाटक का फ़ोटो और ख़बर छापते हुए लिखते हैं चाटक ने जन समुदाय को बांधे रखा और चाटा, उनका संवाददाता इसका प्रत्यक्षदर्शी रहा। 

प्रमुख समीक्षाओं से 

मीठी-मीठी चुटकियों से भरे व्यंग्य 

-  डॉ. मनोहर अभय

धर्मपाल महेंद्र जैन, उर्फ़ धर्म पेशे से न्यायाधीश तो नहीं, हाँ व्यंग्य के उच्चतम न्यायालय के न्यायिक अवश्य हैं जो आरोपियों को उनका असली चेहरा दिखा देता है। सच तो यह है कि वह एक संवेदनशील कवि हैं। कविता के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने से पहले उन्होंने मीठी-मीठी चुटकियाँ लेने वालों के बीच अधिक ख्याति अर्जित की। यहाँ तक कि कुछ समाचार पत्रिकाओं के स्थाई स्तम्भकार हैं।  आत्मस्थ, परस्थ अथवा निर्वैयक्तिक चुटकियों से लेखक ने अच्छे-अच्छों की बखिया उधेड़ी। 

पुस्तक में इक्क्यावन चटपटे लेख हैं। चटपटे का मतलब मीठी सौंठ नहीं। ये बिना नमक की तीखी (पटना-मिर्च की) शुद्ध चटनी है, जिसे चाटने वाला छटपटाता है, हाय-हाय करता हुआ। जनाब धर्मपाल जी मन ही मन मुस्कराते हैं, मूँछों में। ऐसे आलेख को व्यंग्य की संज्ञा देते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं "जहाँ कहने वाले के अधरोष्ठ हँस रहे हों और सुनने वाला तिलमिला उठा हो"। 

धर्मपाल जैन ने सदैव लक्ष्मण रेखा का सम्मान किया है। अगर रेखा तोड़नी ही पड़ी तो प्रतीकों का धारदार प्रयोग किया। ऐसे प्रसंग पाठकों के मन में गुदगुदी पैदा करते हुए, उनका साक्ष्य परिवेशगत वास्तविकताओं से कराने में मदद करते हैं। आलेख को जायकेदार बनाने के लिए चाहिए, व्यंग्य की तगड़ी खुराक। 

मिलने-जुलने का ये काम धर्मपाल महेंद्र जैन ने बड़ी निपुणता से किया है। वे आधुनिक दिमाग वालों के सम्पर्क में मैत्रीभाव से आए और वापसी में उनके कपड़े भी उतार लाए। नंगा इतना बेशर्म कि नाचने लगा फ्लडलाइट में। व्यंग्यकार क्या करे? आँखें बंद कर ले या मोटे लेंस का चश्मा चढ़ा कर गौर से देखे नंग-नाच। अच्छा यही होगा कि वह इस नंगे की तसवीर खिंच कर सबके सामने पटक दे। सचमुच यही मिलेगा ‘दिमाग वालो सावधान’ में।

दिमाग वालो सावधान 

-    डॉ. प्रदीप उपाध्याय

आज के दौर में धर्मपाल जैन बतौर व्यंग्य लेखक जाना-पहचाना नाम है, उनके आलेख देश-विदेश के हिंदी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में यत्र-तत्र देखने को मिल ही जाते हैं। धर्म जी के विविधतापूर्ण व्यंग्य आलेख पाठकों को प्रभावित कर ही रहे हैं। उनके आलेखों में प्रकट विचार वर्तमान समाज की गतिविधियों और परिदृश्यों से प्रभावित होकर गुजरते से परिलक्षित होते हैं। 

उनके लेखन पर अपनी बात कहने के पूर्व मैं यहाँ प्रख्यात शास्त्रीय कथक नर्तक बिरजू महाराज जी को उद्धृत करना चाहूँगा। उन्होंने एक जगह लिखा है कि-" भाव बोध का होना जरूरी है। जब तक भाव बोध नहीं होगा अर्थात सुख-दुख, आनंद, विरह, तेज, संताप का बोध नहीं होता तब तक कोई नृत्य नहीं कर सकता।" चूँकि धर्म जी कवि हृदय हैं तो निश्चित ही संवेदना की धरा पर उनका पक्ष प्रबल ही होगा। उनके व्यंग्यों में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक यानी सभी क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों, विद्रूपताओं, विकृतियों के विरुद्ध  आक्रोश स्पष्टतः परिलक्षित होता है।

धर्मपाल महेंद्र जैन की पुस्तक 'दिमाग वालो सावधान' जब मेरे हाथों में आई तो मुझे सबसे ज्यादा इस बात ने प्रभावित किया कि व्यंग्य संग्रह में लेखक ने किसी अग्रज-दिग्गज से कोई भूमिका नहीं लिखवाई और न ही अपने मन की बात कही है। अर्थात पाठक बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के व्यंग्य आलेखों से साक्षात्कार करने लगता है। वैसे पाठक की स्वाभाविक मनःस्थिति होती है कि वह जानना चाहता है कि व्यंग्यकार क्या है! क्यों है! लेकिन इसका जवाब धर्म जी के व्यंग्य स्वयं दे देते हैं।